संकलन : जया मिश्रा Advocate तिथि : 17-06-2021
प्रकृति में स्वयं ही पूँजने योग्य सृष्टि में अनेकों चमत्कार हैं। जिन्हे सनातन संस्कृति में सैकड़ों वर्षों से धर्म कर्म के रूप मे सहेज कर संरक्षित किया गया है। शिवलिंग का नाम आते ही सनातनी संस्कृति और धार्मिक विचार ध्यान अवचेतन मन मे आने लगता है। ज्यादातर सामाजिक और धार्मिक लोगो के लिए शिवलिंग मात्र आस्था और धर्म का केंद्र है, किन्तु शिवलिंग के तथ्य इससे भी श्रेष्ठ और ब्रह्माण्डिय हैं, जिनका ज्ञान हो जाने मात्र से ही व्यक्ति सीधे ब्रहमाण्डिय एवं वैज्ञानिक शक्तियों को सरलता से प्राप्त कर सकता है। सनातनी संस्कृति में शिव को सृजन-विध्वंस और अद्भुत रहस्यो का कारक देवता मानते हुए आदि अनादि योगी कहा गया है। शास्त्रों में शिवलिंग को परम कल्याणकारी शुभ सृजन ज्योति माना गया है। संपूर्ण ब्रह्मांड और हमारे शरीर की उत्पत्ति भी पिंडाकार स्वरूप से हुआ है अर्थात पिंडात्मक स्वरूप को आधार देते ही एक पिण्ड लिंग स्वरूप मे परिवर्तित हो जाता है। सनातनी संस्कृति में शिवलिंग केवल धर्म या दिखावा नहीं है, यह चेतना, शक्ति और विज्ञान का अनूठा संयोग भी है, जिसे प्राचीनतम विद्वानों और ऋषि मुनियो द्वारा समझ और जानकर ही दैनिक जीवन मे मानव कल्याण के लिए धर्म कर्म से जोड़ा गया है।
सनातनी सभ्यता मे स्थायी शिवलिंग और अस्थायी शिवलिंगो को स्थापित कर पूजन अर्चन होता है। कोई भी आदि अनादि योगी शिव का पूजन मिट्टी, रेत, गाय के गोबर, लकड़ी से बने शिवलिंग द्वारा कर सकता है, जिनमे से स्थायी शिवलिंग पीतल, काले ग्रेनाइट पत्थर तथा स्फटिक के एवम 12 अलग-अलग सामग्री (1.रेत, 2.चावल, पकाए भोजन 3.नदी की मिट्टी 4.गाय के गोबर 5.मक्खन 6.रुद्राक्ष का राख 7.राख 8.चंदन, 9.दूर्वा (घास) 10.फूलों की माला 11.शीरा तथा 12.लकड़ी) द्वारा अस्थायी शिवलिंगो को बनाया जाता है। लेकिन शुद्धतम शिवलिंग स्फटिक का माना जाता है। स्फटिक पत्थर, मनुष्य द्वारा तराशा नहीं जा सकता है क्योंकि स्फटिक सैकड़ों, हजारों या लाखों वर्षों में अणुओं के इकट्ठा होने पर प्रकृति द्वारा बनता है। स्फटिक का बनना जीवित शरीर की तरह धीरे धीरे विकसित होने वाली प्राकृतिक क्रिया है। वैदिक शास्त्रो में शिवलिंग के लिए प्राकृतिक मिट्टी, रेत, गाय के गोबर, लकड़ी, पीतल या काले ग्रेनाइट पत्थर मेंं स्फटिक शिवलिंग को उच्चतम पदार्थ मानते हैं।
कणाशम (ग्रेनाइट) मणिभीय दानेदार स्फटिक और स्फतीय या फेल्सपार अवयव का मिश्रित आग्नेय पत्थर (पाषाण) है। कणाशम (ग्रेनाइट) पृथ्वी के प्रत्येक भाग में पाया जाता है। कणाशम का भारतीय परिक्षेत्र के मैसूर, उत्तर आरकट, मद्रास, राजपूताना, सलेम, बुंदेलखंड और सिंहभूमि में प्रचुरता मिलती है। हिमालय प्रदेशों में भी कणाशम (ग्रेनाइट) शिलाएँ विद्यमान हैं। कणाशम की उत्पत्ति के संबंध में वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं। कुछ वैज्ञानिक कणाशम की उत्पत्ति द्रव पत्थरों या शैलभूत (मैग्मा) के धीरे-धीरे ठंडा होकर ठोस होना मानते हैं और कुछ वैज्ञानिक कणाशम को द्रव पत्थरों या शैलभूत और लवणीय द्रव्यों से निर्मित मानते हैं। कणाशम गुलाबी, लाल, नीला, धूसर या श्वेत, तथा काले रंगों का पाया जाता है। ग्रेनाइट का विशिष्ट घनत्व 2.51 से 2.73 तक होता है। इस प्रकार कणाशम अथवा स्फटिक दोनों ही प्राकृत रसायनिक आग्नेय पत्थर (पाषाण) है, जिसकी शीतलता आसपास के क्षेत्र की उष्णता को कम या समाप्त करने की क्षमता रखता है।
सनातनी सभ्यता मे सभी स्थायी शिवलिंगो को ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है और ज़्यादातर ज्योतिर्लिंगों का निर्माण कणाशम अथवा स्फटिक से ही हुआ है। स्पष्ट रूप में शिवलिंग नाभिकीय परमाणु ऊर्जा का शान्त केंद्र है, जिसमें परमाणु विखण्डन होता है। भारत सरकार द्वारा सभी ज्योतिर्लिंगों के स्थानों पर रेडियो एक्टिविटी मैप के परिक्षण में सबसे ज्यादा रेडियोधर्मी पाया गया है।
सनातनी शास्त्रानुसार ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता का विवाद बहुत अधिक बढ़ गया, जिसमे अकस्मात ही अग्नि की ज्वालाओं में लिपटा हुआ लिंग प्रगट हो गया, जिसका रहस्य दोनों देवों को समझ नहीं आया। दोनों ही देव रहस्य को खोजनें निकल पड़े, परंतु हजार वर्षों के शोध के बाद भी भगवान विष्णु और ब्रह्मदेव को उस लिंग का कोई स्त्रोत नहीं दिखा और हताश-निराश होकर दोनों देव प्रगट हुए लिंग के पास आए तो उन्हे वहां ॐ की ध्वनि सुनाई देने लगी, जिसको सुनते ही उन्हें आभास हो गया कि यह मात्र लिंग नहीं है, कोई अद्भुत चमत्कारिक शक्ति भी है। जिसके बाद दोनों देव वही आसन लगा ॐ के स्वर से ही आराधन मे लग गए। तत्पश्चात भगवान विष्णु और ब्रह्मदेव की आराधना के तेज से उस लिंग से आदि अनादि योगी भगवान शिव जी प्रगटे और देवों को सदबुद्धि का वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गए। जिसके बाद उनके बीच का विवाद सदैव के लिए ही समाप्त हो गया और एक मत से भगवान विष्णु और ब्रह्मदेव ने शिवलिंग को स्थापित कर शिव को ही अपना अपना आराध्य मान लिया। यही से भगवान शिव का शिवलिंग मे स्थापन आरंभ माना गया। तभी से ही भगवान शिव को लिंग रूप में आराध्य की परम्परा की शुरुआत हो गयी है।
देव-दैवीय युग से ही जनेऊ धारण की सनातनी परम्परा प्राचीनतम और पौराणिक है प्राचीनतम और पौराणिक शास्त्रों अनुसार जनेऊ धारण से शरीर शुद्घ और पवित्र होता है। जब भी किसी भी देव-असुर का चित्रण प्रदर्शित होता ...
हवन के बिना कोई भी यज्ञ पूर्ण नहीं होता, परन्तु बिना यज्ञ के हवन कभी भी हो सकता है। इस धरा पर प्रत्येक जीव जीवन प्राप्ति की प्रेरणा और लक्ष्य के साथ गर्भ मे आते हैं। ...
महेश नवमी उत्सव उत्तर भारत में विशेष रूप से प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मनाया जाता है। भगवान शिव को महेश नाम से भी जाना जाता है। शिव को पृथ्वी पर ...