Pandit Ji स्वास्थ्य वास्तुकला त्यौहार आस्था बाज़ार भविष्यवाणी धर्म नक्षत्र विज्ञान साहित्य विधि

देव-दैवीय युग से ही जनेऊ धारण की परम्परा पशुता त्याग कराकर मनुष्यता स्थापित करती है ।


Celebrate Deepawali with PRG ❐


संकलन : जया मिश्रा Advocate तिथि : 17-06-2021

देव-दैवीय युग से ही जनेऊ धारण की सनातनी परम्परा प्राचीनतम और पौराणिक है

प्राचीनतम और पौराणिक शास्त्रों अनुसार जनेऊ धारण से शरीर शुद्घ और पवित्र होता है। जब भी किसी भी देव-असुर का चित्रण प्रदर्शित होता है, तो विदित होता है कि देव-दैवीय युग से ही जनेऊ धारण की सनातनी परम्परा प्राचीनतम और पौराणिक है बौद्ध धर्म के बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने पर यज्ञोपवीत प्रदर्शित होता है। जनेऊ के उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र इत्यादि उपनाम है। समान्यतः सनातनियों के सभी पंथो मे आज भी किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत संस्कार को करने पर ज़ोर देकर या अपनाकर अनेक प्रकार से ‍सजीव रखा गया है।

जनेऊ धारण जीवन के सांसरिक दायित्व का पालन करने की प्रतीकात्मक परम्परा है!

सनातन संस्कृति के 24 संस्कारों में एक उपनयन संस्कार से मनुष्य रूप में सांसरिक जीवन के दायित्व बटुक जनेऊ धारण कर ही पूर्ण करता है। अर्थात शूद्र (शुद्ध), वैश्य (वैश्विक) क्षत्रिय, ब्राह्मण सभी जनेऊ धारण करके ही शिक्षित एवं सांसारिक दायित्व पालन करते हैं। सांसारिक नियमो का पालन करने वाला प्रत्येक सनातनी जनेऊ पहन सकता है, परंतु प्राप्त ज्ञान के अनुसार नियमित पालन कर सांसारिक कर्मो को नियम (मान्यता) अनुसार पूर्ण करना होता है। सामान्यतः यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। इस आर्य संस्कार को मक्का में काबा की परिक्रमा से पूर्व आज भी किया जाता है। पारसियों से भी वित्र मेखला अधोवसन (लुंगी) का सम्बन्ध जनेऊ संस्कार से मिलता जुलता है।

जनेऊ धारण करके ही यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है।

द्विज (बालक) को ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास या सन्निकट ले जाना ही उपनयन है, जिसे धारण करके ही द्विज (बालक) को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। गायत्री तथा वेदपाठ का अधिकारी बनने के लिए उपनयन (जनेऊ) संस्कार अत्यन्त आवश्यक है। आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने का संकल्प लेकर ब्रह्मचारी तीन धागों का जनेऊ और विवाहित  युवती छह धागों का जनेऊ धारण कर सकती है। यज्ञोपवीत के छह धागों में तीन धागे स्वयं के और तीन धागे सहभागी के बतलाए गए हैं। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत का प्राविधान समाप्त हो जाता है, क्योकि सन्यासी सांसारिक दायित्व पालन से मुक्त होता है। जनेऊ धारण करने के उपरान्त मैला होने पर मनुष्य इसे उतार कर तुरंत ही दूसरा जनेऊ धारण करना पड़ता है अर्थात शारीर पर जनेऊ सदैव रहना ही इसका प्रमुख नियम या कर्तव्य है।

जनेऊ सूत्रों की प्रतीकात्मक प्रवर्तियों, अंगो, गांठों का रहस्य

जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होना जनेऊ धारण की 64 कलाओं (वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान) और 32 विद्याओं (चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक) में गति एवं निपुणता के प्रयास करना को दर्शाता है और बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहने जाने वाले तीन सूत्र के जनेऊ निम्न 5 प्रवर्तियों के प्रतीक होते हैं :- 1. त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) 2. ऋण (देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण) 3. तत्व (सत्व, रज और तम) 4. गायत्री मंत्र के तीनों चरण 5. तीनों आश्रमों का। एक-एक तार में तीन-तीन तारो से निर्मित्त नौ सूत्र का यज्ञोपवीत निम्न अंगो का प्रतीक है :- १. मुख २. नासिका ३. दो आंख ४. दो कान ५. मल ६. मूत्र ७. दो हाथ ८. दो पैर ९.चित या बुद्धि। जिनका तात्पर्य होता है कि उक्त सभी अंगों से अच्छे व सुसंस्कारी कर्म करे, जो स्वयं और सांसरिक दायित्व के लिए कल्याणकारी रहे। जनेऊ की पांच गांठ ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष के साथ पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक।

पशुता को त्याग कर मनुष्यता को ग्रहण करने का संस्कार ही यज्ञोपवित परम्परा है ! 

धर्म शास्त्रों में यम-नियम के व्रतशीलता का प्रतीक यज्ञोपवीत को व्रतबन्ध कहते हैं। क्योकि व्रतों से मनुष्य का उत्थान बिना यज्ञोपवीत धारण के सम्भव नहीं। सामान्यतः सांसारिक सभी जीवों के समन ही माता-पिता के रज-वीर्य से मनुष्य के नए शरीर जन्म होता है, अर्थात जन्म से सभी जीव जन्तु की श्रेणी में ही आते हैं, किन्तु आदर्शवादी जीवन लक्ष्य को अपना लेने की प्रतिज्ञा ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश है, जो संस्कारो से ही उत्पन्न हो सकता है। अर्थात स्वार्थ की संकीर्णता वाले पशुता को त्याग कर परमार्थ की महानता में प्रवेश कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा या द्विज जन्म कहते हैं।

जनेऊ धारण करने की अवस्था व अनिवार्यता!

गुरु परंपरा के अनुसार जन्म अथवा गर्भ उत्पन्न होने के आठवें वर्ष में जब बालक का विद्यारंभ होता है, तब उपनयन संस्कार किया जाता है। अन्यथा विवाह से पूर्व शिक्षित व दीक्षित मानते हुए विवाह के समय जनेऊ पहनाये जाने की रस्म अदायिगी होती है। जनेऊ का महत्व केवल धर्माज्ञा ही नहीं, बल्कि आरोग्य का पोषक भी है मुख्य रूप से स्वास्थ लाभ के साथ धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टि से जनेऊ पहनना बहुत ही लाभदायक है।

* किसी भी धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करने के पूर्व जनेऊ धारण करना अनिवार्य है।

* जब भी मलमूत्र या शौच विसर्जन करते समय जनेऊ धारण अनिवार्य है।

पंडितजी पर अन्य अद्यतन