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Pooja Path व्रत / उपवास / उद्यापन / संस्कार सिद्धि / मंगल-अभिलाषा अनुष्ठान


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संकलन : Abhishek Rai तिथि : 25-07-2024

व्रत और उपवास का सर्वश्रेष्ठ तथा सुगम मार्ग, ब्रह्मांडीय हितों में रत, त्रिकालज्ञ ऋषि, मुनियों एवं तपस्वियों द्वारा मानव कल्याण हेतु विरासत है।

मानवीय परिस्थितियों को आत्मसात कर मानव के कल्याण हेतु त्रिकालज्ञ व ब्रह्मांडीय हितों में रत ऋषि, मुनियों एवं तपस्वियों ने वेद, पुराण, स्मृति तथा निबंध ग्रंथो के दवारा सर्वदुःख निवृति के साथ सुख प्राप्ति के लिए अनेक उपचार व उपायों से अवगत कराया है। उन अनेकानेक उपायों में से व्रत और उपवास को सुख प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ तथा सुगम मार्ग बताया गया है। सांसारिक प्रत्येक प्राणी अपने अनुकूल सुख प्राप्ति और प्रतिकूल दुख से मुक्ति का यत्न चाहता है। उन्ही सांसारिक प्राणियों में मनुष्य को भी पुण्याचरण से सुख, पापाचरण से दु:ख,पीड़ा होता है, किन्तु व्रताचरण से पुण्य का उदय, शरीर और मन की शुद्धि से आत्मिक शांति तथा परम पुरुषार्थ की सिद्धि होती है, जिनके प्रभाव से अभिलाषित मनोरथ की प्राप्ति, पापों का नाश होता है।

तपस्या, आत्मशुद्धि व भक्ति का मार्ग व्रत, प्रभृति मूल नियमों का पालन करने से जीवन में सत्परिवर्तन परिवर्तन ईश्वरीय कृपा दिलाते हैं। 

मनुष्य महत्वपूर्ण धार्मिक और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा विशिष्ट नियमों और विधियों का पालन करते हुए एक दिन या एक निश्चित अवधि के लिए भोजन, अन्न या कुछ अन्य वृत्तियों या वस्तुओं का त्याग कर एक व्रत को पूर्ण करता है। इस अभ्यासों से शारीरिक, मानसिक उन्नति के साथ ईश्वरीय भक्ति का मार्ग, शांति तथा आत्मिक प्रसन्नता प्रशस्त होता है। व्रत को तपस्या, आत्मशुद्धि और भक्ति का माध्यम मानकर व्रत के प्रभृति समस्त आवश्यक नियमों के पालन से व्यक्ति को ईश्वरीय कृपा प्राप्त होती है और उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आते हैं। विभिन्न त्योहारों और देवी देवताओं के अनुसार व्रत की विधि एवं प्रकार भिन्न हो जाते हैं, लेकिन सभी व्रतों का मुख्य उद्देश्य आत्मिक प्रसन्नता, उन्नति व शुद्धि के साथ ईश्वरीय भक्ति करना है। ग्रंथों में धर्म और साधना रूप में उपवास या व्रतों के विधान करने के अनेक अंगों व विधियों का वर्णन मिलता है। इसीलिए किसी न किसी रूप में व्रत या उपवास को संसार के समस्त पन्थो और धर्माचरण ने अपनाया है।

विशेष देवी या देवता की कृपा प्राप्ति या व्यक्तिगत मनोकामना की पूर्ति के लिए किसी भी व्रत के आचरण के लिए तदर्थ विहित समय अपेक्षित है।

व्रत को विभिन्न उद्‌देश्यों जैसे धार्मिक त्योहार, किसी विशेष देवी या देवता की कृपा प्राप्ति के लिए या व्यक्तिगत मनोकामना की पूर्ति के लिए किया जाता है। वैदिक काल की अपेक्षा पौराणिक युग में अनेक प्रकार के व्रत थे, जो कालान्तर में समय, व्यवहार, कठोरतम नियमों के पालन ना हो पाने के कारण से अधिकांश कम होते गए अथवा उनके नियमों में अनेक प्रकार के विकल्प भी प्रदर्शित होने लगे हैं। उदाहरण स्वरूप एकादशी के उपवास विधान में वैकल्पिक लघु फलाहार और यदि यह भी सभव ना हो, तो एक बार ओदन रहित अन्नाहार करने तक का विधान शास्त्र सम्मत प्रचलन में है। पौराणिक युग से ही तिथि पर आश्रित रहने वाले व्रतों की बाहुलता में कुछ व्रत अधिक समयावधि में, कुछ अल्प समय में पूर्ण होते हैं। इसी प्रकार किसी भी व्रत के आचरण के लिए तदर्थ विहित समय अपेक्षित है।

देवी देवता सर्वदा सत्यशील होते हैं, इसीलिए व्रत अवधि तक व्रती का सत्यशील बने रहना ही सांसारिक कष्ट को कम या समाप्त कर सकता है।

ब्रहमग्रन्थ  के आधार पर सर्वदा सत्यशील होने का लक्षण त्रिगुणात्मक स्वभाव के पराधीन है, जो मानव में घटित नहीं होता है, किन्तु देवी देवता सर्वदा सत्यशील होते हैं।इसीलिए सर्वदा सत्यशील स्वभाव के पराधीन देवता, मानव से सर्वदा परोक्ष रहना पसंद करते हैं। तपस, आत्मशुद्धि व भक्ति का मार्ग के प्रभृति मूल नियमों का पालन करने वाले व्रती उपासक को नियम पूर्वक व्रत का आचरण, व्रत अवधि तक मिथ्या को छोड़ सर्वदा सत्य का पालन करने का संकल्प धारण करना आवश्यक होता है, तदोपरान्त वैदिक मंत्र का उच्चारण के साथ आराध्य अग्निदेव से अग्नि परिग्रह के समय करबद्ध प्रार्थना करते हुए अग्नि में समित् आहूति कर व्रत आरम्भ करना चाहिए। व्रत अवधि तक व्रत के निमित्त व्रती अखंड ब्रह्मचर्य धारण कर केवल एक बार हविष्यान्न का भोजन एवं प्रभृति समस्त आवश्यक नियमों का पालन करते हुए तृण से आच्छादित भूमि पर शयन करना वैदिक नियम का सिद्धान्त है और ईश्वरप्रिय बनकर अधिकाधिक व्रत की उपासना अवधि में सर्वदा सत्यशील बने रहने का प्रयत्न कर सांसारिक कष्ट को कम या समाप्त किया जा सकता है।

आपात्काले मर्यादा नास्ति अर्थात आपात काल के समय व्रत के सभी नियम को भंग किए जा सकते हैं, ऐसी अनुमति भी वेदों द्वारा स्वीकृत है।

श्रुतियों के अनुसार वसंत ऋतु में भी व्रत ब्राहम अग्नि परिग्रह से प्रारंभ करने का विधान है, वैसे ही चांद्रायण आदि व्रतों के प्रारंभ में व्रताचरण के निमित्त वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण तक का विधान प्रचलित है। अनेक प्रकार के अग्नि उपासना रूपी व्रत के पूर्व वेद के ‌द्वारा प्रतिपादित अग्नि परिग्रह का विधान सर्वप्रथम आवश्यक बताया गया है। व्रती के द्वारा अग्नि परिग्रह के पश्चात् पूर्वोदित विहित व्रत का अनुष्ठान संपन्न कर याग को प्रारंभ करने का अधिकार प्राप्त करता है। यदि प्रमादवश उपासक ने आवश्यक अंगभूत नियमों का पालन ना करते हुए व्रतानुष्ठान पूर्ण करता है अथवा व्रतानुष्ठान ही नहीं करता है, तो उसके ‌द्वारा समर्पित हविद्रव्य देवी देवता स्वीकार नहीं करते और व्रती का व्रतानुष्ठान निष्प्रयोज्य एवं निष्प्रभावी हो जाता है। जिसके परिणामतः सुख बढ़ने के बजाये दुख, पीड़ा बढ़ने लगते हैं। इसलिए व्रत कोई भी हो, उनके प्रभृति समस्त आवश्यक नियमों का पालन अनिवार्य हो जाता है, किन्तु वत अवधि में आपात्काले मर्यादा नास्ति अर्थात् आपात काल के समय सभी नियम को भंग किए जा सकते हैं, ऐसी अनुमति भी वेदों द्वारा स्वीकृत है।

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