संकलन : Abhishek Rai तिथि : 24-07-2024
सनातन संस्कृति का अतिपवित्र प्रतीक शंख, जगत के धर्म, सुरक्षा, संचालन और गति को संचालित व संरक्षित रखने वाले पालनहार श्री हरि विष्णु के दांए हाथ में शोभा पाया हुआ चित्रित किया जाता है, जिसके पीछे भी कोई ना कोई वैज्ञानिक तथ्य अवश्य है, जिसको ज्ञात कर जीवन में सुख प्राप्त किया जा सकता है। क्योकि ऋषि-मुनियों ने सांसारिक जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये ही संस्कृति आधारित संस्कारों का स्थापन किया है, जो वैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय जीवन में विशेष धार्मिक महत्व रखते हैं। पौराणिक रूप से शंख की उत्पत्ति समुद्र से होने के कारण शंख को माँ लक्ष्मी के भाई की उपमा मिली हुई है। वैदिक शास्त्रों के मतानुसार जहाँ शंख पूजित होता है, वहां लक्ष्मी अवश्य होती हैं। जनश्रुतियों के आधार पर मान्यताएं हैं कि माँ लक्ष्मी के कृपापात्रों को श्री हरि विष्णु का भी संयुक्त आशीर्वाद स्वतः ही मिलने लगता है, क्योकि क्षीरसागर में विष्णु जी की अर्धांगिनी माँ लक्ष्मी, स्वयं सदैव उनकी सेवा में निवासित रहती हैं और भक्त या याचक की प्रत्येक मनोकामनाएँ पूर्ण करती हैं।
सागर में उत्पन्न एक प्रकार के बिना रीढ़ की हड्डी वाले जलचर से निर्मित्त वृत्ताकार ढाँचा, जो अधिकांश पेचदार वामावर्त या दक्षिणावर्त में बना ध्वनि करने वाला समुद्री जीवों का बाहरी खोल कड़ा होता है, जिसे शन्ख के नाम से जाना जाता है। समुद्री जीव का आकार जैसे-जैसे बढ़ता है, वैसे-वैसे ही शंख (बाहरी खोल) का आकार भी बढ़ कर अधिक कड़ा व बड़ा होता जाता है। शंख के अन्दरूनी जीव के मृत होने के उपरान्त उसका जीवन रक्षक बाहरी खोल या शंख स्वतः ही पानी के सतह पर आ जाता है। शंख की तीन परतें आपस में जुड़ कर कई प्रकार की आकृतियों व रंगों को जन्म देती है, परन्तु शंख का महत्वपूर्ण पहलू उसकी ॐ ध्वनि और पावनता में है। इन्ही तथ्यों पर आधारित होकर सनातनी धार्मिक अवसरों पर शंख बजाने की धार्मिक प्रथा पौराणिक तथा अति प्राचीनतम् कालीन है।
शंख को फूँक कर बजाने से ॐ की ध्वनि उच्चारित होती है, जो चित्त व आत्मा को एकाग्र करता है। शन्ख की ध्वनि सभी तांत्रिक क्रियाओं को बाधित करने की क्षमता भी रखती हैं, इसलिए शंख की ध्वनि पूजा-पाठ के लिए शुभ ध्वनि प्रतीक रूप में अनुकूल, प्रकाशवान, उत्तेजना और बेहद शुभता प्रेरक मानी जाती है अर्थात तांत्रिक क्रियाओं को बाधित करने क्षमता रखने वाले शन्ख की ध्वनि, विजय, प्रभुता समृद्धि व शुभता के रूप में प्रयुक्त होती है। जबकि कलश समृद्धि, संपत्ति, और अन्य सम्पदा संबंधित अवस्थाओं का प्रतीक होता है। धार्मिक पूजा अनुष्ठानों और आध्यात्मिक क्रियाओं में शंख कलश स्थापना का मुख्य उद्देश्य बहुउपयोगी, समृद्धि, शुभता, वैभव वृद्धिकारक और सुरक्षा प्राप्ति का सूचक माना गया है। सामान्यतः सभी सनातनी कर्मकांडों में समृद्धि, आनंद और संपत्ति प्रतीक कांस्य, ताम्र, रजत या स्वर्ण अथवा मिटटी के कलश स्थापना के बिना पूजा-पाठ संपन्न नहीं होते हैं, किन्तु कलश के साथ श्रीफल (नारियल) के स्थान पर एक शंख और एक शंखिनी की स्थापना (शन्ख कलश स्थापना) की प्रक्रिया विशिष्ट धार्मिक और सामाजिक उत्सवों, विवाहों, गृह प्रवेश, यात्रा के आदि के अवसरों पर किया जाता है।
शास्त्रोक्त वर्णन के अनुसार समुद्र मंथन से प्राप्त 14 अमूल्य रत्नों में से समुद्र पुत्री सम्पन्नता की देवी माँ लक्ष्मी व उनके भाई शंख, जगत के पालनहार स्वयं नारायण (विष्णु) के वैभव व शक्ति के मूल है। अर्थात अद्भुत त्रिदेवों में सम्पूर्ण ब्रह्मांड का शासक, सृष्टि के पालनकर्ता और सर्वोच्च शक्तिशाली रक्षक श्रीहरि विष्णु का एक प्रमुख आयुध शस्त्र शंख भी है और लक्ष्मी जी उनकी अर्धांगिनी हैं, जिनके बिना नारायण अपूर्ण हैं। शंख वातावरण में शुद्धता, प्रकाश, उत्तेजना और बेहद शुभता प्रेरित करता है और लक्ष्मी जी की कृपा से संसार मे हर्ष, आनन्द, उल्लास, मनोविनोद, वैभव और सम्पन्नता प्रसारित होता है। शास्त्रानुसार शंख विजय, समृद्धि, सुख, यश,कीर्ति व वैभव का प्रतीक है।
पौराणिक लोक मान्यतानुसार शंख-कलश स्थापन से लक्ष्मी नारायण जी प्रसन्न होकर पूजक को संसारिक कष्ट, चिंता, बाधाओं तथा संकटों से रक्षा करते हुए मुक्ति देते हैं। घर में या व्यापारिक गुप्त स्थल पर केसर युक्त जल स्रोत पर शंख रखने से धन वृद्धि होती है। इस पूजा अनुष्ठान के अनुसार मंत्रों का जाप, प्रसाद वितरण इत्यादि प्रक्रिया को स्थापित किया जाता है। शंख कलश स्थापना की विधियाँ, प्रथाएं अधिकांश पुराणों, तांत्रिक शास्त्रों, और वैदिक ग्रंथों में उपलब्ध हैं। शन्ख कलश स्थापना अनुष्ठान को समाजिक एकात्मता, शांति और समृद्धि प्रतीक रूप में अलग-अलग देवी-देवताओं की पूजा के लिए उपयोग किया जाता है।
किसी कर्मकांड विशेषज्ञ वैदिक विप्र या भिज्ञ की उपस्थिति या अध्यक्षता में शंख कलश स्थापना अनुष्ठान में पूजक व उसके परिजनों के मंगल, कल्याण, तेजोवान स्वस्थ के साथ शुभ फलों की प्राप्ति संभावना को पुष्ट किया जाता है, जिसमें पारिवारिक सदस्यों के बीच खुशी और उत्साह के साथ कलश व शंख-शंखिनी, विष्णु, लक्ष्मी, वरुण सहित, सर्वतोभद्र, षोड्श मात्रिका, नक्षत्र मण्डल पंचतत्वों, दसों दिशाओं तथा सार्वभौमिक ऊर्जा के देवी-देवताओ का विधिनुसार मंत्रोच्चारण से आवाहन संबंधित हर महत्वपूर्ण वैदिक विधि और प्रक्रिया या संस्कार को पूरा कराकर श्रीसूक्त का पाठ कर सम्पन्न कराया जाता है। तदोपरान्त पूजक के इच्छानुसार सुख शान्ति और वैभव पूर्ण सुखद जीवन की अभिलाषा हेतु देवों को हव्य (हवन) दिलवा कर इस प्रक्रिया को सम्पन्न कराया जाता है, जिससे उत्पन्न शुभता, आशीष से व्यापार और जीवन इत्यादि पर सदैव सतत् उन्नति बनी रहती है।
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सभी श्राद्धों में सांवत्सरिक श्राद्ध कर्म को श्रेष्ठ कहा गया है। शास्त्रीय ग्रंथों में कुल 12 प्रकार के श्राद्ध बताए गए हैं :- 1.नित्य श्राद्ध, २.नैमित्तिक श्राद्ध, ३.काम्य श्राद्ध, 4.वृद्धि श्राद्ध, 5.सपिण्डन श्राद्ध, 6.पार्वण श्राद्ध, 7.गोष्ठण ...