संकलन : Abhishek Rai तिथि : 23-07-2024
लक्ष्मी का अवतरण दिवस हर्ष,उल्लास,मनोविनोद,वैभव व सम्पन्नता का आध्यात्मिक पर्व है।
दीपों के जगमग से सुसज्जित माँ लक्ष्मी जी का अवतरण दिवस दीपावली पर्व का महत्व और महात्मय सनातनियों के लिए अतिमहत्वपूर्ण उत्सव है। आध्यात्मिक रूप से प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला सनातन पौराणिक उत्सव दीपावली अंधेरे पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई और अज्ञान पर ज्ञान के विजय का प्रतीक पर्व है, अर्थात हर्ष, आनन्द, उल्लास, मनोविनोद, प्रसन्नता, वैभव और सम्पन्नता की देवी माँ लक्ष्मी का अवतरण दिवस ही दीपावली पर्व है।
श्रृंखलात्मक पंचपर्वों को निष्ठा और हर्षौल्लास से मनाने से पारिवारिक आई या आने वाली दुर्गम विपत्तियाँ टलती हैं।
दीपावली को मात्र एक दिवस का पर्व कहना उचित नहीं होगा। यह पांच पर्वों की श्रृंखला के मध्य में रहने वाला त्यौहार है, जैसे मंत्रियों के समुदाय के मध्य में एक राजा शोभायमान रहता है, उसी प्रकार से दीपावली पर्व भी पंचपर्वों में अपना महत्व रखता है। दीपावली से दो दिवस पूर्व धनतेरस (यम दीपम) तत्पश्चात् नरक चतुर्दशी (काली चौदस, हनुमान जयन्ती, छोटी दीपावली) तदोपरान्त दीपावली (लक्ष्मी पूजन, केदार गौरी व्रत, कमला जयन्ती,दर्शा अवतार, चौपड़ पूजन), गोवर्धन पूजा (अन्नकूट, बलि प्रतिपदा, द्रुत कीड़ा दिवस) तथा भाई दूज (चन्द्र दर्शन, यम दितीया) मनाये जाते हैं। इस त्योहार (पर्व) को निष्ठा और हर्षोउलास से मनाए जाने पर परिवार पर आई या आने वाली दुर्गम विपत्तियाँ टलती हैं।
स्वच्छता, प्रसन्नता, सुव्यवस्था, श्रमनिष्ठा एवं मितव्ययिता में लक्ष्मी स्वतः प्रदर्शित होती हैं।
कुछ सनातनी दीपावली पर्व की रात्रि को ही लक्ष्मी जागरण का दिवस मानते हैं। पौराणिक लोक मान्यतानुसार किसी भी स्थान पर लक्ष्मी जी का वास करने मात्र से ही आस-पास के समस्त कष्ट, संताप नष्ट होते हैं और जहां अंधकार, कुविचार, अशुद्धता होता है, वहाँ लक्ष्मी जी कभी भी वास नहीं करती हैं और ना ही वो, वहां उपस्थित ही होती हैं। लक्ष्मी जी के वास करने का लक्षण स्वतः स्वच्छता, प्रसन्नता, सुव्यवस्था, श्रमनिष्ठा एवं मितव्ययिता के रूप में प्रदर्शित होता है।
कुटुंब मे हर्ष और आनंद में चाह में लक्ष्मी गृह आगमन की प्रत्याशा सभी को होती है।
लक्ष्मी जी के गृह आगमन की प्रत्याशा में राजा हो या रंक सभी पूर्ण निष्ठा, हर्षोउल्लास से अधिकाधिक संख्याओं में दीप के प्रकाश पुंज से रात्रितिमिर को दूर भगाकर विधिपूर्वक उनका पूजन करते हुए यह उत्सव पर्व मनाते हैं। जिसके प्रभाव से पूरे वर्ष तक पूजक के कुटुंब मे वैभव, संपन्नता, हर्ष और आनंद बना रहता है। जिसकी अभिलाषा में प्रत्येक सनातनी लक्ष्मी जी के स्वागत रूप में दीपावली से एक दिवस पूर्व रात्रिकाल से ही पूर्ण हर्षौल्लास के साथ सक्रिय रूप से पंच महापर्व का आनन्द लेते हैं। दीपावली पर्व की निशा में दीये जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोक मान्यताएं हैं, किन्तु इस त्योहार को मनाने का मुख्य उद्देश्य घर में ऊजाला और घर के हर कोने को प्रकाशित कर गृह में सकारात्मकता स्थापित करना होता है।
श्रीरामचन्द्र के आगमन के बाद चहुँओर दीप प्रज्वलन की प्रथा तीव्रता से बढ़ी है।
चौदह वर्ष का वनवास पूर्ण कर दीपावली को सन्ध्या काल के समय भगवान श्री रामचन्द्र जी अयोध्या में पुनः पधारे थे,और उस दिवस भी अयोध्यावासियों में शुद्ध अन्तःकरण से गणेश, लक्ष्मी एवं कुबेर का पूजन/पर्व की तैयारियां हो रही थीं, तभी भगवान श्री रामचन्द्र, माता जानकी व लक्ष्मण के आगमन का समाचार पाकर समस्त अयोध्यावासियों ने अपनी खुशी से झूमते हुए दीप जलाकर स्वागत में उत्सव पर्व अतिउल्लास से मनाया। तभी से कमला जयन्ती (दर्शा अवतार) को दीप चहुँओर प्रज्वलित करने की प्रथा और भी तीव्रता से प्रचलन में स्थापित होने लगा।
माँ लक्ष्मी का अवतरण दिवस दीपों की जगमग के साथ भक्ति, समर्पण और उत्साह के बिना अधूरा है।
आज लक्ष्मी पूजन को बिना दीपों के किये जाने की कल्पना भी सम्भव नहीं है, सम्भवतः इन्हीं तथ्यों के आधार पर ही इस उत्सव पर्व को दीपावली (दीपमालिका) कहा जाता है। कार्तिक मास की अमावस्या को सनातनियों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्यौहार दीपावली न केवल सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण है, बल्कि सांस्कृतिक, पारिवारिक और समाजिक प्रेम, आदर, भक्ति, समर्पण और एकता के बढ़ावे की परंपराएँ और रीति-रिवाज सदियों से सौहार्द्रता और समृद्धि का संचार करते हुए भारतीय संस्कृति का हिस्सा बना हुआ है। अतः सभी सनातनियों को गणेश,लक्ष्मी एवं कुबेर पूजन (दीपावली पर्व) अवश्य करना चाहिए।
कुबेर पोटली व गुल्लक स्थापन के बिना शास्त्रोक्त दीपावली (दीपमालिका पर्व) अधूरा ही रहता है।
दीपावली पर्व को कुबेर जी की पोटली स्थापित कराकर लक्ष्मी,गणेश और वैभव प्रतीक देवों का वैदिक शास्त्रानुसार पूजन अर्चन कर धन समृद्धि,हर्ष और आनंद की अभिलाषा पूर्ण होती है।
शास्त्रोक्त दीपावली पूजा का विधि व विधान।
कर्मकांड विशेषज्ञ वैदिक पुजारी, आचार्य, विप्र या भिग्य की उपस्थिति या अध्यक्षता में सदियों पुराने रीतिरिवाज और परंपरा को यथावत रखते हुए पारिवारिक प्रेम, आदर, भक्ति, समर्पण के साथ सद्भाव से ग्रहस्थ जीवन में कल्याण, मंगल, तेजोवान स्वास्थ्य व शुभ फलों की प्राप्ति की संभावना को पुष्ट के लिए यथोक्त कुल रीतिनुसार खुशी और उत्साह के साथ अनुष्ठान पूर्ण किया जाता है, जिसमें परिवार के प्रधान को पूर्वाभिमुख बैठाकर कलश स्थापन के साथ मंगलाचरण स्वस्तिवाचन, गुरुवंदना, लक्ष्मी, गणेश अन्य शुभेक्छ देवों सहित पंचतत्वों और दशो-दिशाओं से सम्बन्धी प्राकृतिक(दैवीय) शक्तियों का पूजन, सर्वदेव नमस्कार आदि कृत से संबंधित हर महत्वपूर्ण विधि और प्रक्रिया को सम्पादित कराते हैं। इस प्रकार गणेश, लक्ष्मी एवं कुबेर पूजन का विधान और प्रक्रिया पूरा होने के उपरान्त पूजक की इच्छानुसार पूजक के सुख शान्ति और वैभव पूर्ण सुखद जीवन की अभिलाषा पूर्ति हेतु श्री सूक्त का पाठ सम्पन्न कराकर सभी औपचारिकताएँ पूरी करायी जाती है।
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सभी श्राद्धों में सांवत्सरिक श्राद्ध कर्म को श्रेष्ठ कहा गया है। शास्त्रीय ग्रंथों में कुल 12 प्रकार के श्राद्ध बताए गए हैं :- 1.नित्य श्राद्ध, २.नैमित्तिक श्राद्ध, ३.काम्य श्राद्ध, 4.वृद्धि श्राद्ध, 5.सपिण्डन श्राद्ध, 6.पार्वण श्राद्ध, 7.गोष्ठण ...
गायन भक्ति मार्ग का सर्वाधिक शुद्ध व सरल आराधना प्रणाली है - आरता या आरती सर्वशक्तिमान या ईश्वरीय की आराधना में उनके गुणों, रूपों, महिमा और दैवीय शक्तियों का गेय वर्णन ही आरता / आरती कहलाता ...