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EKADASHI - आमलकी एकादशी केवल व्रत ही नहीं है, स्वास्थ्य का उत्सव भी है।


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संकलन : अनुजा शुक्ला तिथि : 24-02-2022

प्रत्येक माह और पक्षों में आने वाली तिथियां कई प्रकार की विभिन्नताएं लिए हुए होती है। ऐसी कई प्रमुख तिथियां हैं, जिन्हें सनातन संस्कृति में विशेष ही माना गया है। इन्हीं तिथियों में प्रत्येक माह में एकादशी तिथि भी दो बार आती है। इसी क्रम मे फाल्गुन माह शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि किसी पर्व से कम नहीं है, क्योकि यह तिथि मूलत: भगवान विष्णु को तो समर्पित है ही, साथ ही भगवान आशुतोष (शंकर जी) व खाटू श्याम से भी संबंधित हो जाती है। इस विशेष एकादशी तिथि को अमालकी एकादशी के नाम सम्बोधन प्राप्त है। आंवले वाली (आमलकी) एकादशी के पीछे कई कथाए हैं।

होली से पूर्व ही अमालकी एकादशी तिथि विशेष हो जाती है। राजस्थान के सीकर स्थित खाटू श्याम के तीरथ पर अमालकी एकादशी पर्व तिथि को दर्शनाभिलाशियों का बड़ा मेला लगता है, जिसमे सुदूर से भक्त लोग अवश्य सम्मिलित होते है। । वहीं काशी में भी इस तिथि को रंग और गुलाल के रूप में हर तरफ अथाह प्रेम बरसना आरम्भ हो जाता है। इसीलिए अमालकी एकादशी तिथि को रंगभरनी एकादशी के नाम से प्रसिद्धि मिली हुई है। एकादशी से जुड़ी कथाए और किवदंतियां अनेकों हैं, जिसमें आमलकी एकादशी तिथि का रंगभरनी नाम पड़ने के पीछे महादेव और माता पार्वती की पौराणिक कथा भी प्रचलित है।

आमलकी या रंगभरनी एकादशी तिथि को भोलेबाबा पार्वती संग काशी पहुंचे-

गौरी (पार्वती) से परिणय सूत्र में बंधने के उपरान्त भोलेनाथ जब प्रथम प्रिय काशी नगरी आए, तो संयोग से वह तिथि आमलकी एकादशी थी, जिस अवसर पर स्वागत में पूरा नगर विविध रंगों से सजाया गया था और उत्साहित पार्वती जी ने शिव जी के साथ रंग से भरी एकादशी मनाई, तब से यह परंपरा चली आ रही है। आमलकी एकादशी को मां गौरी और शिव के स्वागत की जोर-शोर से तैयारियां होती हैं। बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार होता है और पूरी काशी को रंग-गुलाल से सजाया जाता है।

राजस्थान में खाटू श्याम का अवतरण-  

मान्यता है कि आमलकी एकादशी को श्याम कुंड में बाबा श्याम का मस्तक प्रकट हुआ था। होली पर्व के समीप पडऩे वाली एकादशी के अवसर पर खाटू धाम में अवतरण के उपलक्ष्य में मेले का आयोजन होता है, जिसमें भारी संख्या में श्रद्धालु खाटू श्याम के दर्शन कर पूजा-पाठ करते हुए अपने घर-परिवार की सुख-समृद्धि की प्रार्थना करते हैं।

आमलकी एकादशी व्रत नियम
आमलकी व्रत रखने वाले भक्त एकादशी के एक दिन पूर्व ही दशमी की सन्ध्या काल में श्री हरि विष्णु का ध्यान करके पालनकर्ता निद्रा में जाए और एकादशी को प्रातः स्नान कर श्री हरि की प्रतिमा के सामने हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर मोक्ष की कामना से आमलकी एकादशी व्रत को धारण का संकल्प लेकर षोड्षोपचार विधि से भगवान का पूजन और आरती को पूर्ण करने के उपरान्त श्री हरि से प्रार्थना करनी चाहिए कि हे परमेश्वर प्रसन्नता का वरदान देते हुए जन्मजन्मांतर के आवागमन के चक्र से मुक्ति व मोक्ष प्रदान करते हुए अपने शरणागत लीजिये।

आमलकी एकादशी व्रत विधि व नियम

पौराणिक कथा में आंवले के वृक्ष के मूल में भगवान विष्णु, ब्रह्मा व भोलेनाथ बसते हैं, शाखाओं में ऋषि-मुनि, टहनियों में देव-देवियो, पत्तों में वसु और फलों में सभी प्रजापति स्वयं विराजते  हैं इत्यादि वर्णन करते हुए पापों को हरने वाला बताया गया है। इसलिए जो भी आंवले के पौधे अथवा वृक्ष को पूजता है, उन पर भगवान विष्णु की विशेष कृपा होती है।

गाय के गोबर से आंवले वृक्ष के आसपास की भूमि को लिप-पोत कर शुद्ध व पवित्र करने के उपरान्त वृक्ष की जड़ के समक्ष वेदी निर्मित कर कलश स्थापित कर चंदन का लेप व वस्त्र समर्पित कर सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित करते हुए कलश में सुगंधी और पंचरत्न रखने  के पश्चात कलश के ऊपर पंच-पल्लव रखकर उस पर दीप जला दें। तत्पश्चात श्री हरि के अवतार परशुराम जी का स्मरण कर विधिवत पूजा-अर्चना कर ले। तदोपरान्त रात में भगवान की कथा व भजन करके प्रभु का स्मरण करें। अगली दिवस ब्राह्मणों को परशुराम की मूर्ति सहित कलश दान कर निर्बल व निधनों को भोज करवाने के पश्चात स्वयं प्रसाद रूप में अन्न-जल ग्रहण करते हुए प्रभु के निमित्त व्रत में जो भी त्रुटियां हुई हों, उसके लिए मुझ अबोध बालक को क्षमा करें, ऐसी प्रार्थना अवश्य करें।

आमलकी एकादशी का व्रत

शास्त्रों में वर्णित है कि राजा मान्धाता ने ऋषि वशिष्ठ से फाल्गुन एकादशी व्रत का माहात्म्य जानने की इच्छा प्रकट की, जिसके सम्बंध में ऋषि वशिष्ठ ने फाल्गुन मास में भगवान विष्णु के श्रीमुख से आँवले की उत्पत्ति के साथ औषधिय गुणो को बताते हुए आँवले का रहस्यों का बखान करते हुए  आमलकी एकादशी व्रत के महत्ता व उससे प्राप्त एक हजार गायों को दान करने के समान पुण्य की प्राप्ति का पूर्ण ज्ञान दिया। आँवले के गुणों के कारण आमलकी एकादशी व्रत में पूजा का विधान सभी प्रकार की रोग व्याधियों के साथ पाप भी नष्ट कर देता है।

इसके अतिरिक्त प्राचीन कथानुसार वैदिक नामक नगर में उच्चकोटि का विद्वान, बहुत धार्मिक प्रवृत्ति का चंद्रवंशी राजा चैत्ररथ राज्य करता था। राजा चैत्ररथ स्वयं प्रत्येक एकादशी का व्रत करते थे, जिसके कारण उनके राज्य में की प्रजा भी एकदशी के नियमकों और विधियो का निष्ठा से पालन व पूजन करती थी। जिनके प्रभाव से उस राज्य में सभी ओर सुख-शांति,प्रसन्नता चहुओर रहती थी।  

फाल्गुन माह शुक्ल पक्ष की आमलकी एकादशी तिथि पर राजा ने प्रजा (बालक, युवा और वृद्धजनों) सहित सभी ने प्रसन्नता पूर्वक मंदिर में कलश स्थापित करके धूप, दीप, नैवेद्य, पंचरत्न, छत्र आदि से पूजन कर रात्रि जागरण करते हुए व्रत पूर्ण किया। एक बहेलिया जो कुटुंब के भरण-पोषण हेतु जीवों की हिंसक हत्या (शिकार) करके जीवन यापन करता था। उसी रात्रि मंदिर में सौभाग्य से भूख-प्यास से अत्यंत व्याकुल वह बहेलिया आ पहुंचा। भोजन पाने की इच्छा से वह मंदिर के एक कोने में बैठा एकादशी महात्म्य के साथ विष्णु जी की कथा सुनता हुआअन्य लोगों के साथ जागरण करते हुए रात्रि व्यतीत की और प्रात:काल वह बहेलिया घर गया और तब भोजन किया। कुछ समय पश्चात बहेलिए की मृत्यु हो गई।

अमालकी के प्रभाव से बहेलिए को मिला राजा का जन्म

जीव हिंसा के कारण वह बहेलिया घोर नरक का भागी था, परंतु आमलकी एकादशी व्रत और जागरण के प्रभाव से उसका जन्म राजा विदुरथ के रूप में हुआ और वह चतुरंगिणी सेना सहित धन-धान्य से युक्त होकर दस सहस्त्र ग्रामों का संचालन करने लगा। राजा विदुरथ तेज में सूर्य के सदृस्य, कांति में चंद्रमा के सदृस्य, वीरता में विष्णु के सदृस्य तथा क्षमा में पृथ्वी के सदृस्य अत्यंत धार्मिक, सत्यवादी, कर्मवीर और विष्णुभक्त था।

एक बार आखेट करते हुए वन में दिशा का ज्ञान न होने के कारण रास्ता भटक गया और वन में एक वृक्ष के नीचे सो गया। रात्रि काल में वहां डाकू आए और राजा को पहचान उसकी ओर दौड़े और कहने लगे कि दुष्ट राजा ने हमारे माता-पिता, पुत्र-पौत्र आदि समस्त संबंधियों को मरवाया है और देश निकाला दिया। अब अवसर मिला है कि इसे मारकर अपमान का बदला लेने का। वे डाकू राजा पर अशस्त्रो-शस्त्रो सहित टूट पड़े, परन्तु डाकुओ के शस्त्रो के प्रहार राजा को फूल के समान लगने लगे। इसी मध्य व्रत के पुण्य प्रभाव से उसी क्षण ही राजा के शरीर से अत्यंत सुंदर, कीमती वस्त्रों तथा आभूषणों से अलंकृत एक दिव्य देवी प्रकट हुई, जिनके नेत्रो से क्रोध की भीषण अग्नि निकल रही थी। कुछ ही क्षणों में डाकुओं का नाश उन देवी द्वारा हो गया। जब राजा निद्रा से उठे, तो अपने समक्ष अनेक मृत डाकुओं को देख आश्चर्यचकित होकर विचार करने लगे कि इस घनघोर वन में कौन मेरा हितैषी है, जिसने इतनी निर्दयिता से इन्हें मारा है, तभी अकस्मात ही राजा वसुरथ को बिजली के कडकन मे आकाशवाणी सुनाई दी कि हे राजन ! भूतों का ज्ञाता तथा वर्तमान एवं भविष्य का कर्ता है, जो अदृश्य अवस्था में हर जगह व्याप्त है। मैं वही विष्णु हूं। आपके आमलकी एकादशी के व्रत का प्रभाव है। इस संसार मे भगवान विष्णु के अतिरिक्त तेरी रक्षा कौन कर सकता है। इस आकाशवाणी के पश्चात राजा ने भगवान विष्णु को स्मरण कर प्रणाम करते हुए धन्यवाद किया और नगर को वापस आ कर सुखपूर्वक राज्य करने लगा और अन्त काल में वैकुंठ धाम को प्राप्त हुआ।

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