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Makar Sankranti - मकर संक्रांति तिथि का स्नान, जीवन के कष्टो का समाधान।


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संकलन : अनुजा शुक्ला तिथि : 14-01-2022

समान्य रूप मे 14 जनवरी को मकर संक्रांति निश्चित रहती है, किन्तु कभी-कभी भ्रम की स्थिति मे 15 जनवरी को भी यह पर्व मनाया जाता है। पंचांगों के दृष्टिकोण से वाराणसी के पंचांगों सहित सभी सनातनी पंचांगों में सूर्य का राशि परिवर्तन 14 जनवरी 2022 को अपराह्न ढाई बजे प्रलक्षित है, तो वहीं दूसरे कुछ पंचांगों में रात्रि 08 बजे के उपरान्त दृष्टि गोचर हो रहा है। भारत के अधिकतर अन्य भागों में वाराणसी के पंचांग के अनुसार संक्रांति पर्व निर्विवाद रूप से 15 जनवरी 2022 को ही मनाये जाने के संकेत हैं।

उर्पयुक्त विवेचना से स्पष्ट है कि 15 जनवरी 2022 को मकर संक्रांति पर्व है। यदि सनातन संस्कृति के ग्रंथों का और मंथन किया जाए, तो मनुष्य के सामने विशुद्ध रूप से दो तर्क सामने आते हैं। सर्वप्रथम यह कि सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने से सोलह घंटे पूर्व ही पुण्यकाल की शुरूआत हो जाता है, जिसके आधार पर मकर संक्रांति को कही पहले तो कही बाद में मनाया जाता है। दूसरा तर्क यह प्रगट होता है कि सूर्य उदय के उपरान्त तिथि में हुए परिवर्तन को मान्यता नहीं दी जाती है। इन अवधारणाओ के अनुसार सनातन संस्कृति का प्रत्येक पर्व जो सनातन पंचांग के अनुरूप ही मनाया जाता है। प्रत्येक पर्व का प्रारंभ सूर्य उदय की तिथि से लिया जाता है। इन कुछ कारणों के चलते व भौगोलिक संरचना की विभिन्नता के साथ ही सनातन संस्कृति के विभिन्न मतों को आत्मसात करने के चलते ही अलग-अलग स्थानों पर यह भिन्नता हम देखते हैं।

सनातन संस्कृति के अंतर्गत मनाए जाने वाले पर्वों, उपवासों और अन्य धार्मिक क्रियाकलापों का संबंध विशुद्ध रूप से प्रकृति एवं खगोलीय गणनाओं के साथ पाषाण युग से रहा है। सनातन संस्कृति में कोई भी ऐसा पर्व और उपवास नहीं है, जो वर्तमान अवस्था में उपस्थित प्रकृति परिवेश और खगोलीय गणनाओं और घटनाओं से संबंध न रखता हो। इस सबंध का बहुत ही गूढ़ रहस्य भी है। जिसे आसानी के साथ समझा जा सकता है। सनातन संस्कृति में गतिशील और परिवर्तनशील रहने वाली प्राकृति के साथ लगातार साम्जस्य बनाने का अति-दुर्लभ प्रयास सहस्त्रो वर्षो से किया जाता रहा है। ताकि मानव-जाति और प्रकृति में एक लयबद्ध क्रमबद्ध व सुव्यवस्थित संबंध स्थापित रहे।

जिसका ज्ञान सनातनी पूर्वजों व ऋषि मुनियों को सैकड़ो वर्षो पहले ही हो गया था। जिसके कारण अलग-अलग कालखंडों में ऐसे व्रत उपवास व पर्वों को संग्रहीत किया गया है, जो मानव और प्रकृति के संबंध को और भी दृढ़ किए हुए हैं। इस क्रम में प्रमुख पर्व का नाम निश्चित रूप पर सबके सम्मुख आता है, मकर संक्रति। प्रत्यक्ष रूप में यह पर्व मनुष्य को बदलते हुए प्राकृतिक परिवेश के अनुसार खुद तैयार करने का पर्व है। मकर संक्राति को लेकर सनातन धर्म शास्त्रों में बहुत कुछ लिखा गया है। सामान्य जनमानस के दृष्टिïकोण से देखा जाए, तो मकर राशि में सूर्य प्रवेश कर पूरे मास मकर राशि में ही गतिशील रहते हैं। इस प्रकार सूर्य के मकर राशि में प्रवेश की तिथि पर ही मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है। वस्तुत: अलग अलग जगहों के अक्षांश-रेखांश के अनुसार सूर्योदय के परिणामस्वरूप सूर्य के राशि परिवर्तन में समयांतर हो जाता है।

इस शुभ पर्व को कुछ स्थानों पर उत्तरायण भी कहा जाता है, परंतु पिछले कुछ कालखंड में मकर संक्रांति पर्व को मनाए जाने को लेकर बहुत असमंजस की स्थिति रहती है। वर्तमान कालखंड में इस पर्व को लेकर आखिर यह संशय की स्थिति क्यो होती है, जिसका ज्ञान न केवल संसय समाप्त करेगा, बल्कि मस्तिष्क में छाए संशय के बादलों को हटा देगा। मान्यता है कि सूर्य महाराज के दक्षिणायन अवधि की यात्रा के दौरान जो देव प्राण व शक्तिहीन हो जाते हैं, उनमें पुन: मकर संक्रांति पर्व से उत्तरायण की यात्रा अवधि तक नई ऊर्जा शक्ति का संचार होता है और वे भक्तों-साधकों को यथोचित फल देने में सामर्थ्यवान रहते हैं। सूर्य महाराज के उत्तरायण काल की संचित ऊर्जा व शक्ति के बल पर ही दक्षिणायन अवधि की यात्रा पूर्ण करते हैं। इन्ही तथ्यो के आधार पर ही मकर संक्रांति पर्व से उत्तरायण अवधि तक सभी प्रकार के मांगलिक कार्य जैसे यज्ञोपवीत, मुंडन, शादी-विवाह, गृहप्रवेश आदि संपादित होते हैं।

अर्थात सूर्य के मकर संक्रांति पर्व से माघ माह के संयोग बनने तक सभी देव निरन्तर प्रभावशाली, शक्तिशाली, लाभकारी बने रहते हैं। इसी तिथि से तीर्थराज प्रयाग और गंगा, यमुना और सरस्वती के पावन संगमतट पर साठ हजार तीर्थ, नदियां, सभी देवी-देवता, यक्ष, गन्धर्व, नाग, किन्नर आदि एकत्रित होकर स्नान, ध्यान, जप-तप, और दान-पुण्य करके जीवनी चेतना को प्रभावशाली, शक्तिशाली, लाभकारी ऊर्जा मे परिवर्तित करते हैं। तभी इस पर्व को तीर्थों और देवताओं का महाकुंभ पर्व कहा जाता है। मत्स्य पुराण के अनुसार यहां की एक माह की तपस्या परलोक में एक कल्प (आठ अरब चौसठ करोड़ वर्ष) तक निवास का अवसर देती है, इसीलिए साधक यहां कल्पवास भी करते हैं।

वहीं धर्म ग्रंथों के अनुसार और विद्वानों के मतानुसार स्वयं भगवान कृष्ण ने भी उत्तरायण के महत्व का बखान करते हुए मकर संक्रांति को लेकर अपने ऊद्गार व्यक्त किया है कि जब 6 महीने के शुभ काल में सूर्य देव उत्तरायण होते हैं, तो पृथ्वी प्रकाश से भर उठती है। ऐसी भी मान्यता है कि इस अवधि में शरीर त्यागने वाले लोगों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। सूर्य के मकर राशि मे प्रवेश से उत्पन्न क्रान्ति और सूर्य की महत्ता का बखान केवल देवकीनंदन ने ही नहीं किया है, अपितु जीव की गति बताने वाले महानग्रंथ कर्म-विपाक संहिता में सूर्य महिमा का वर्णन करते हुए सूर्य की उपासना की महत्ता के संबंध में स्वयं देवों के देव महादेव भगवान शिव जी भी माँ पार्वती से कहते हैं कि देवि ! ब्रह्मा विष्णु: शिव: शक्ति: देव देवो मुनीश्वरा, ध्यायन्ति भास्करं देवं शाक्षीभूतं जगत्त्रये। अर्थात- ब्रह्मा, विष्णु, शिव, शक्ति, देवता, योगी ऋषि-मुनि आदि तीनों लोकों के शाक्षीभूत भगवान् सूर्य का ही ध्यान करते हैं। जो मनुष्य प्रात:काल स्नान करके सूर्य को अर्घ्य देता है उसे किसी भी प्रकार का ग्रहदोष नहीं लगता, क्योंकि इनकी सहस्रों किरणों में से प्रमुख सातों किरणें सुषुम्णा, हरिकेश, विश्वकर्मा, सूर्य, रश्मि, विष्णु और सर्वबंधु, जिनका रंग बैगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल है। मनुष्य शरीर को नयी उर्जा और आत्मबल प्रदान करते हुए सभी पापों का शमन करती हैं। प्रात:कालीन लाल सूर्य का दर्शन करते हुए ॐ सूर्यदेव महाभाग ! त्र्यलोक्य तिमिराप:। मम् पूर्वकृतं पापं क्षम्यतां परमेश्वर:। यह मंत्र बोलते हुए सूर्य नमस्कार करने से जीव को पूर्वजन्म में किये हुए पापों से मुक्ति मिलती है। 

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