संकलन : Super Administrator तिथि : 19-10-2020
वास्तु शास्त्र के अनुसार पृथ्वी पर हर दिशा में मानवीय क्रिया-कलाप के लिए आवश्यक ऊर्जा का होना जरूरी है। दिशाओं तथा कोणों के परिवर्तन से ही ऊर्जा का क्षरण एवं विस्तार होता है। इसी तथ्य को ध्यान मे रखते हुए किस दिशा में कौन सा कार्य करना चाहिए, यह वास्तुविद् समय-समय पर परिभाषित करते रहे हैं। वास्तु विद्या में ज्ञान,विचारों और अवधारणाओं के बल पर मंदिरों, घरों, कस्बों, शहरों, उद्यानों, सड़कों, दुकानों और अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों का चित्रण और साज-सज्जा और जीवन शैली स्थापित कर जीवन सरल-सुखद और आनंदमय बनाए जाने के सिद्धांत मिलते हैं।
संस्कृत में वास्तु का अर्थ है भूमि का साथ या संगत या भूमि पर रहने वाला या निवास करना। वास्तु-शास्त्र नियमावली में गृह निर्माण, नगर नियोजन और कुशल गाँवों, कस्बों और राज्यों को प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए राज्यों के भीतर के मंदिरों, जल निकायों और उद्यानों को शामिल किया गया है। ये मंदिर और नगर नियोजन ग्रंथ सैद्धांतिक थे, जिनमें शहर की योजना और सनातनी मंदिरों की कला, और कला के आदर्श के रूप में कल्पना की गई थी। इसी क्रम में पठन-पाठन/अध्ययन के लिए कौन सी दिशा ज्यादा उपयोगी एवं प्रभावशाली हो सकती है इसका ज्ञान जिज्ञासु तथा ज्ञानी व्यक्ति को निश्च्य ही होना चाहिए।
भारतीय परंपरा में शास्त्र, कला और विज्ञान के संयोग से भूमि पर निवास करने की उत्पन्न प्रणाली को ही वास्तु शास्त्र अथवा वास्तु कला कहते हैं। प्राचीन काल से वास्तु को विद्या और कला का भाग माना जाता रहा है। विज्ञान के अनुसार सूर्य, पूर्व से उदय होकर पश्चिम में अस्त होता है तथा चंद्रमा पश्चिम से उदय होकर पूर्व में अस्त होता है। इस चलन के प्रभाव से सूर्योदय के साथ ऊर्जा गतिमान होनी प्रारम्भ होती एवं चंद्रोदय से शीतलता का विस्तार होता है। कार्य/प्रयोजन की सिद्धि ऊर्जा के गतिमान रहने पर ही हो सकती है। शीतलता को आनन्द तथा सुख का पर्याय माना जाता है। जिज्ञासु तथा शिक्षारत व्यक्ति को कार्य / प्रयोजन की सिद्धि के साथ-साथ आनन्द एवं सुख की भी आवश्यकता होती है। जिससे कि विचारों में सक्रियता वास करे। सूर्य के उदय से अस्त की दिशा में यानी पूर्व से दक्षिण होकर पश्चिम दिशा में जाने से तीक्षणता व ऊष्मा का विकास होता है।
जिसके प्रभाव के कारण ही मानवीय क्रिया-कलाप और क्रियाशीलता उन्नत होती है तथा सूर्य अस्त से उदय की दिशा में यानी पश्चिम से उत्तर होकर पूर्व दिशा में ऊर्जा का निरंतर क्षरण होता है। ऐसे में पूर्व से पश्चिम की दिशा में ऊष्मा और पश्चिम से पूर्व की दिशा में शांति एवं शिथिलता विकसित होती है। सूर्योदय के पहले ही लाभकारी चुंबकीय तरंगें सकारात्मक ऊर्जा का संचार करना आरम्भ कर देती हैं एवं सूर्योदय के बाद निरंतर ऊष्मा बढ़ती जाती है। चंद्रमा के उदय से पहले ही ऊष्मा न्यूनतम स्तर तक जाने लगती है एवं चंद्रोदय के पश्चात नकारात्मक ऊर्जा विकसित होती जाती है।
इस प्रकार पठन-पाठन / अध्ययन के लिए उषा काल एवं ईशान दिशा को श्रेयकर माना जाता है। जहां से चंद्रमा का अस्त तथा सूर्य के ऊदय की प्रक्रिया का सृजन आरंभ हो जाता है। जिज्ञासु और शिक्षारत व्यक्ति के लिए ऊषा काल (ब्रह्म मुहूर्त - 4:00 से सूर्योदय तक का समय) और ईशान कोण यानी उत्तर-पूर्व दिशा से लाभकारी चुंबकीय तरंगों का आगमन शुभ, लाभदायक है। ईशान कोण अध्ययन के लिए लाभप्रद है एवं उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर (वायव्य कोण) मुख करके अध्ययन करना समान्य परिणामप्रद माना जाता है।